मुंबई लोकल भजन मंडली

Anil Kumar Valmiki writes about the bhajan mandalis in Mumbai’s local commuter trains. A bhajan mandali  in a local train is a group of commuters who sing devotional songs and chants, accompanied by instruments such as the dhol (drums) and manjiras (cymbals), on their way to work. For those unfamiliar with Mumbai, a quick search on Youtube for ‘bhajans in Mumbai local’ will take you to videos of this phenomena. And here is an article in the Indian Express about one such group. Anil paints  a picture of his own experiences as he travels to work each morning. Is the bhajan mandali all about devotion only?

अनिल कुमार वाल्मीकि

मुंबई लोकल, वैसे तो इसे मुंबई की लाइफ लाइन कहते हैं लेकिन यह शब्द सुनते ही सबसे पहले जहन में एक और तस्वीर बनती है, वो है भीड़ से भरी ट्रेन की जिसमे इंसान जानवरो की तरह भरा हुआ होता है, सांस लेने की भी जगह नही होती है लेकिन फिर भी हर स्टेशन पर लोग चढ़ते हैं।

भगवान हर जगह है और उसको कभी भी और कहीं भी याद कर सकते हैं। इसका जीता-जागता उदाहरण मुम्बई लोकल में देखने को मिलता है। लोकल ट्रेन में हर त्योहार मनाया जाता है चाहे वो दीवाली हो, दशहरा या नवरात्री हो, लोग ट्रेन में ही मना लेते हैं। यहां तक कि महिलाएं तो डांडिया, गरबा भी खेलती है ट्रेन में। रोज सुबह शाम भजन भी होते हैं ट्रेन में। आप इसको धार्मिक ट्रेन भी बोल सकते हैं।

एक दिन मै लोकल ट्रेन से विरार से ऑफिस जा रहा था। अचानक डफ़ली और मंजीरे की आवाज़ आने लगी, मैने देखा कि डिब्बे के दूसरे छोर पर कुछ लोग भजन गा रहे हैं। देखकर दिल खुश हो गया मन मे सोचा की कितने धार्मिक हैं ये लोग, खचाखच भारी ट्रेन में जहा आदमी को सीधा खड़ा रहने के लिए भी पूरी जानसे ताकत लगानी पड़ रही है ये लोग भगवान का भजन कर रहे हैं। दादर आने से पहले उनका भजन कार्यक्रम समाप्त हो गया और प्रसाद भी बाटा गया, जिसे देखकर तो खुशी का ठिकाना ही नही रहा। हालाकि मुझ तक प्रसाद तो नही पहुचा लेकिन फिर भी दिल में बहुत मिठास घुल गयी थी। अगले दिन फिर वही नज़ारा और दिल में वही खुशी। वो कहते हैं ना कि दूर के ढोल सुहाने लगते हैं। बस वैसा ही कुछ मेरे साथ हो रहा था क्योंकि मैं डिब्बे के इस छोर पर खड़ा होता था और भजन दूसरे छोर पर होते थे।

अब हुआ क्या की एक दिन मैं इत्तफाक से डिब्बे की उसी साइड में चढ़ गया था जहां पर वो लोग भजन करते थे। नालासोपारा तक तो सब नॉर्मल था लेकिन उसके बाद उन्होंने जगह बनाना शुरू की, मतलब भजन मंडली के सदस्यों के खड़े रहने के लिए जगह करना, जो लोग उनके पीछे खड़े थे उनको और पीछे धकेल दिया, उनमे मैं भी शामिल था। ये आलम था कि जो हाथ ऊपर था वो नीचे नही आ सकता था और जो हाथ नीचे था उसको तो हिला भी नही सकता था, और ये सिर्फ मेरा नही बल्कि ट्रेन में जितने लोग खड़े थे सबका यही हाल था। अब भजन कार्यक्रम शुरू हुआ। एक डफ़ली और दो मंजीरे, डफ़ली की आवाज़ से तो इतनी समस्या नही थी लेकिन दो-दो मंजीरों की आवाज़ सीधे कान के पर्दे पर जाकर टकरा रही थी, शोर बर्दाश्त के बाहर जा रहा था, कान में सीटियां बजने लगी थी। मै सोच रहा था कि हे भगवान मै कहाँ आकर फंस गया। क्योंकि हिलने को भी जगह नही थी इसलिये कहीं और जाकर भी खड़ा नही हो सकता था। मैंने बाकी लोगो की तरफ देखा तो समझ में आया कि मेरी तरह वो भी परेशान हैं। मेरे पास एक बुजुर्ग खड़े थे मैने उनसे कहा कि, “अंकल ये लोग इतना शोर क्यूँ करते है? शांती से भजन नहीं कर सकते क्या?” तो अंकल ने कहा कि “बेटा ये लोग भक्ति नही कर रहे हैं बल्कि अपना टाइमपास करने के लिए भजन कर रहे हैं”  तो मैंने कहा कि “लोगों को इस शोर से इतनी तकलीफ़ होती है फिर भी कोई इनसे कुछ कहता क्यूँ नही है?” तो उन्होंने कहा कि “ज्यादातर लोग तो अकेले ही सफर करते हैं और ये लोग ग्रुप में, अब ग्रुप के सामने एक आदमी की कहाँ चलने वाली”. अंकल ने बिल्कुल सही कहा था क्यूंकि ऐसा मैने कई बार देखा भी था। अब मैने ये सोच लिया था कि चाहे सीट मिले या न मिले लेकिन मै कभी भजन वाले डिब्बे में नही चढ़ूंगा।

एक दिन मुझे सर्दी हो रही थी इसलिए सर में बहुत दर्द हो रहा था और उसी दिन गलती से मै भजन वाले डिब्बे में चढ़ गया। एक तो सर पहले ही दर्द से फटा जा रहा था ऊपर से मंजीरे की टन-टन से और दर्द बढ़ गया। मैने हेडफोन लगाया लेकिन उससे भी कोई फायदा नही हुआ। मै ही जनता हूँ कि एक घंटे तक उस शोर को कैसे झेला था मैंने। उसकी वजह से मेरा पूरा दिन खराब गया था।

एक और बात, जब ट्रेन स्टेशन से निकलती है तो कुछ लोग पूरा जोर लगाकर धार्मिक और देशभक्ति के  जयकारे लगाते हैं और फिर बाकी लोगों की तरफ देखते हैं किसने उनके बाद  जयकारा या नही और जिसने जयकारा नही लगाया होता है उसकी तरफ तो इतनी नफरत से देखते हैं कि जैसे वो कोई पाकिस्तानी हो। मेरी ये समझ में नही आता कि गला फ़ाड़ कर चिल्लाने से ही देशभक्ति साबित होती है क्या?। या ज्यादा जोर से मंजीरा बजाने से ही धर्म के प्रति श्रद्धा दिखायी जा सकती है क्या?। कितनी बार लोगों का ऑफिस की या घरेलू परेशानियों की वजह से मूड खराब होता है, स्वास्थ खराब होता है उस वक़्त इंसान किसी से बात भी नही करना चाहता है सिर्फ चुपचाप अपने घर या दफ्तर जाना पहुचना चाहता है। लेकिन ये लोग है कि अपने टाइमपास के आगे लोगों को हो रही तकलीफ के बारे में जरा भी नही सोचते हैं। जो इनके खिलाफ बोलता है उसे बोलने नही देते हैं। क्योंकि वो जानते है कि कोई उनका कुछ बिगाड़ नही सकता। जो लोग ट्रेन से सफर नही करते उनके लिए ये बात कोई मायने नही रखती लेकिन जरा उनके बारे में सोचिये जो रोज सुबह शाम इस धार्मिक शोर का शिकार होते हैं।

अब सवाल ये है कि क्या किसीको धर्म के नाम पर शोर करने की आज़ादी है? और अगर आज़ादी नही है तो इसे रोका क्यों नही जाता है।

अनिल कुमार वाल्मीकि मुंबई के नागरिक हैं जो सामाजिक विषयों पर कविता लिखना पसंद करते हैं।

Anil Kumar Valmiki is a citizen of Mumbai and likes to write poetry on social issues.